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Wednesday, January 11, 2012

अंधेरे का राजा और रोशनियाँ


भांरगम 2012 में मंचित नाटकों पर ‘जनसत्ता’ में संगम पांडेय लिख रहे हैं. ‘रंगवार्ता’ के साथियो के लिए साभार प्रस्तुत है रतन थियम के नाट्य मंचन पर उनकी रंग टिप्पणी.

रतन थियम देश की शीर्ष रंग-निर्देशकों में से है। उनके नाटकों में थिएटर का एक क्लासिक व्याकरण देखने को मिलता है। इस व्याकरण में कहीं भी कुछ अतिरिक्त नहीं, कोई चूक नहीं। संगीत, ध्वनियां, रोशनियां, अभिनय-सब कुछ सटीक मात्रा में आहिस्ता-आहिस्ता लेकिन पूरी लल्लीनता से पेश होते हैं। रविवार को कमानी प्रेक्षागृह में हुई भारत रंग महोत्सव की उद्घाटन प्रस्तुति ‘किंग ऑफ द डार्क चेंबर’ में भी सब कुछ इसी तरह था। पहले ही दृश्य में नीली स्पॉटलाइट अपना पूरा समय लेते हुए धीरे-धीरे गाढ़ी होती है। गाढ़े होते वृत्त में नानी सुदर्शना एक छितराए से विशाल गोलाकार आसन पर बैठी है। उसकी पीछे और दाहिने दो ऊंचे झीनी बुनावट वाले फ्रेम खड़े हैं। एक फ्रेम के पीछे से पीले रंग की पट्टी आगे की ओर गिरती है। फिर एक अन्य पात्र सुरंगमा प्रकट होती है। बांसुरी का स्वर बादलों की गड़गड़ाहट। मणिपुरी नाटक का कोई संवाद दर्शकों के पल्ले नहीं पड़ रहा। लेकिन घटित हो रहा दृश्य उन्हें बांधे हुए हैं। मंच पर फैले स्याह कपड़े में से अप्रत्याशित एक आकार ऊपर को उठता है। कुम्हार की तरह रानी दोनों हाथों से इसे गढ़ रही है। फिर वह इस स्याह आदमकद को माला और झक्क सफेद पगड़ी पहनाती है।

चटक रंगों की योजना रतन थियम की प्रायः हर प्रस्तुति में प्रमुखता से दिखाई देती है। इस प्रस्तुति में भी पीले रंग की वेशभूषा में वादकों का एक समूह। अंधेरे में डूबे मंच पर पीछे के परदे पर उभरा चंद्रमा और मंच पर फैला फूलों का बगीचा। ये रंग अक्सर अपनी टाइमिंग और दृश्य युक्तियों में एक तीखी कौंध या कि चमत्कारिक असर पैदा करते हैं। आग लगने के दृश्य में छह लोग सरपट एक लय में पीले रंग के कपड़े को हवा में उछाल रहे हैं कि दर्शक तालियां बजाने को मजबूर होते हैं।



‘किंग ऑफ द डार्क चेंबर’ रवींद्रनाथ टैगोर का नाटक है। नगर में सब कुछ सही है पर राजा अदृश्य है। वह एक अंधेरे कक्ष में रहता है। रानी सुदर्शना और प्रजा सोचते हैं कि राजा है भी कि नहीं। रानी रोशनी की गुहार करती है, पर सुरंगमा का कहना है कि उसने अनिर्वचनीय सुंदर राजा का अंधेरे में ही देखा था। आस्था और अविश्वास के बीच कांची नरेश जैसे मौकापरस्त लोग अपने काम में लगे हैं। वे आग लगवाते हैं, युद्ध का सबब बनते हैं। उधर रानी का असमंजस बढ़ता जा रहा है। नाटक का अदृश्य राजा ईश्वर याकि सच और सौंदर्य का प्रतीक माना गया है, और उसका अंधेरा कक्ष व्यक्ति के आत्म का। रानी को उसे अपने भीतर ढूंढना चाहिए, पर वह उसे बाहर ढूंढ़ रही है।

नाटक के गाढ़े चन्द्रमा का एक कम गाढ़ा शरीर भी है, यह फ्रेम के पीछे से थोड़ा टेढ़ा होकर पूरे स्टेज को निहार रहा है। युद्ध के दृश्य में एक तीखी व्यंजना है। वास्तविक योद्धाओं की जगह ऊंचे जिरह बख्तर और भाले दिख रहे हैं। आगे लाल रोशनी में तलवारबाजी। एक तेज गति और लय पूरे दृश्य को रौद्र-रस संपन्न करती है। इसी तरह अंतिम दृश्य में एक खास कोण से पड़ती पीली रोशनी में रानी एक बुत में तब्दील होती मालूम देती है-पीछे उपस्थित आकार के आगोश में समाती हुई।

रतन थियम का नाट्य व्याकरण अपनी विशिष्टता के बावजूद अब बहुत जाना-पहचाना हो गया है। उनके डिजाइन में अभिनय केंद्रीय चीज नहीं है। वह कुल प्रस्तुति का एक अवयव मात्र है। उनके सुंदर, युक्तिपूर्ण और लयपूर्ण दृश्य स्वायत्त ढंग से याद रह जाते हैं पर वे कोई गहरा संवेदनात्मक असर नहीं छोड़ते, उनकी प्रस्तुतियाँ रस-सिद्धांत वाले रंग अनुभव के करीब हैं। उनकी क्लासिक लय में एक अर्थपूर्ण सूक्ष्मता और वैभव है। जाहिर है इसमें आम जीवन की उस अनगढ़ सहजता को ढूंढना व्यर्थ ही है, जो प्रायः अभिनय की केन्द्रीयता से बनती है।

- संगम पांडेय

(साभार: जनसत्ता, दिल्ली, 10 जनवरी 2012)

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